शनिवार, सितंबर 03, 2011

क्यों इंसां समझ पाए न इंसां के पीर को

ये    बारिश    का   पानी   है   या  आँखों   की  नमी   है,
रोया      है    आसमां,  और     भीगी         ज़मीं      है .

समझ   जाता   है  बादल   कैसे     धरा   की  पीर   को,
क्यों   इंसां   समझ न     पाए    इंसां      के   पीर   को.

कोई     फ़र्क़     नहीं आया    मौसम    की अंगड़ाई  में,
न   जेठ   की    तपती    धूप   में ,  न हवा    पुरवाई में.

बादल    के  गर्ज    में  बिजली      साथ    निभाती   है,
रोता   है   आसमां,         ज़मीं     भीग       जाती   है.

हटता    जा रहा    इंसां   क्यों अपने   फ़र्ज़ के राहों   से,
काट   रहा  अपनी    हथेली    ख़ुद    अपनी   बांहों   से.

मुड़कर    देखें गर हम पीछे,  कौन सा  बंधन तोड़  आये ,
जो भी मिली  विरासत  में , उसे  भौतिकता में छोड़ आये.

एक घर  के        मातम    में     सारा  गाँव    रोता   था,
एक  फर्द के दर्द-ओ -ग़म   में   सब      साथ    होता  था .

साथ        होकर     भी    हैं     लोग   अकेले      आज,
इस   कमरे से     उस  कमरे    तक जाये   ना  आवाज़.

करते    जा रहे    ख़ुद    ही भूल कहते समय का फेर है,
रोक   लो क़दम  फ़ना   से   पहले   हुई अभी ना देर है.

"रजनी नैय्यर मल्होत्रा "